26 Jun
गर्मी की छुट्टियाँ
गर्मी की छुट्टियाँ
गर्मी की छुट्टियाँ !! जिस प्रकार बच्चों को इसका इंतज़ार रहता है वैसे ही हम अध्यापकों एवं अध्यापिकाओं को भी रहता है । भई, हम भी तो बच्चों के संग रहकर बच्चे बन जाते हैं न !
तो लीजिए आ गई गर्मी की छुट्टियाँ ! २१ तारीख से हम भी लगे इस छुट्टी के मज़े। बच्चों की फरमाइशें , कुछ मियां जी कीं और फिर अपनी तो थी हीं । बस पहला सप्ताह तो जाने कहाँ उड़ गया पता ही नहीं चला ।
अगले सप्ताह भी कुछ घर के काम निपटाने में निकल रहा था कि नज़र पड़ी एक निमंत्रण पर जो कि अभिनव बालमन के तीन दिवसीय कार्यशाला की थी, वो भी अलीगढ़ में । निमंत्रण पत्र पर देखा कि कवि रावेंद्रकुमार रवि जी भी बच्चों को कविता सिखाने आने वाले हैं तो बस फिर क्या था। चल पड़ी हमारी सवारी अलीगढ की ओर। हमारे मियां जी ने राय दी, चलो आगरा भी हो लेंगे। हमने भी एक पल की देरी नहीं की और जी सुबह गाडी में बैठ चल दिए यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर। पहली बार सफ़र कर रहे थे उसपर । पहले –पहले तो अच्छा लग रहा था पर हमारे साहब जी को यूँ सीधे –सीधे रास्ता नापने में आनंद नहीं आ रहा था। थोड़ी देर बाद जब अलीगढ के लिए हम एक्सप्रेस वे से अंदर की ओर मुड़ गए तो इनकी तो जैसे जान में जान आई । मैंने इनकी तरफ देखा आनंद की तो सीमा ही नहीं थी । मुझे इस आनंद का कारण समझ नहीं आया । पूछने पर इन्होंने बताया कि इतने वर्षों बाद उत्तर प्रदेश की सड़क दिखाई दी है जिसमें दोनों तरफ लोग दिखाई दे रहे हैं , उनकी बोली सुनाई दे रही है । उनके खपरैल के मकान , कच्ची सड़कें जिसमें ढोर– डंगर दिखाई दे रहे हैं , आनंद तो इस प्रकार की सड़क पर गाडी चलाने में है , सीधे सीधे जहाँ रौनक ही नहीं वहां क्या मजा। मुझे समझ आया कि व्यक्ति चाहे अपने जन्म स्थल से चाहे कितनी ही दूर क्यों न रहे , चाहे कितनी ही आराम की जिन्दगी क्यों न जी रहा हो , एक बार अपने प्रदेश में जब पहुँचता है तो उस आनंद को शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।
रस्ते में हम चाय पीने के लिए एक ढाबे पर रुके। मैंने चाय पीते– पीते उस ढाबे वाले से यूँ ही पूछ लिया कि जी कितने सालों से आप ये ढाबा चला रहे हैं । मेरा पूछना ही था कि सुंदर – सा जवाब आया । बड़े गर्व के साथ उसने कहा कि “जी हमारा ढाबा तो जी यहाँ का सबसे पुराना ढाबा है , बीस साल से भी ऊपर हो गए जी चलाते। ” कितना आत्म – विश्वास, कितना सुख, उसके इस उत्तर में मैं यहाँ उसे शायद लिख पाने में भी सक्षम महसूस नहीं कर रही। जहाँ इतने वर्ष नौकरी करके , उससे अधिक शायद कमा कर भी , इस तरह का उत्तर मैं अपने लिए नहीं दे पाती । थोड़ी कमाई में भी संतुष्टि उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी।
चाय पीकर आगे रवाना हुए और पहुँच गए निश्चल जी एवं उनकी टीम द्वारा चलाई जा रही कार्यशाला में । सभी अपने काम में व्यस्त । तरह – तरह की कक्षाएँ लगी हुई थीं और बच्चे सीख रहे थे। हमारा अभिनन्दन हुआ , आवभगत हुई । मंच पर स्थान मिला , बच्चों से संबोधन करने का मौका मिला। किसे यह सब अच्छा नहीं लगेगा । सोने पर सुहागा तो तब हुआ जब रावेंद्रकुमार रवि जी से मुलाक़ात हुई और मैंने उनसे कविता लिखने का गुर सीखा। ज्ञान तो जहाँ मिले वहां झट पहुँच जाना चाहिए।
फिर थोड़ी देर रुक कर हम आगरा की ओर रवाना हुए ।आगरा में बीना जी से मुलाकात हुई। बीना जी के ngo प्रयास के बारे में विस्तार से जाना । शर्मा जी और बीना जी दोनों का व्यक्तित्व प्रभावी है और उनकी बातों से हम दोनों बहुत प्रेरित हुए।
अगले दिन सुबह सुबह ताजमहल की सुन्दरता निहारने निकल पड़े । सुबह ६.३० बजे सामने से ताजमहल को देखा जिसके पीछे सफेद बादलों का झुण्ड था। इच्छा हुई कि बस यह पूरा दृश्य आँखों में कैद कर लिया जाए। कैमरा भला इसे कैसे समेट सकता था !
वहाँ से निकलते समय एक छोटी सी बात हुई । एक महिला अपने बच्चे को ताजमहल दिखाने लाई थी । बच्चे को वह बताने का प्रयत्न कर रही थी – देखो बेटा, ताजमहल !! बच्चे ने सरसरी निगाह से देखा फिर कह उठा, “माँ ताज भवन ?” माँ कुछ कहती कि तभी बच्चे को एक उछलती – कूदती गिलहरी दिख गई और वह बोल पड़ा, “माँ, गिलहरी ! माँ, गिलहरी !” वह उसके पीछे भागने लगा । मेरे मन में विचार आया कि बच्चे की रूचि जीते जागते उस नन्हे से जीव में है , उस पत्थर के ताजमहल में नहीं । क्या ऐसा ही हम बच्चों की शिक्षा के साथ नहीं करते । जो शिक्षा बच्चों को खुले आसमान के नीचे मिलनी चाहिए क्या उसे हम वह न देकर बंद कमरों में वह पढ़ाने की कोशिश नहीं करते जो वह पढ़ना ही नहीं चाहता।
खैर , हम बीना जी के ngo के बच्चों से मिलने चल दिए. उन्होंने इतना कुछ सीख रखा था जिसके बारे में सोच भी नहीं सकती थी। बच्चों ने मुझे मेरी पुस्तक ‘ताक धिना धिन ‘ से गीत सुनाये।
मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था। मैंने भी उन्हें कुछ कविताएँ और कहानियाँ सुनाईं।
वहीँ से वापसी हुई और हम सब यादों को समेटते हुए दिल्ली लौटे । जब गाड़ी में साँस लेना दूभर होने लगा था, तो यहाँ की प्रदूषित हवा महसूस होने लगी । सच बाहर से आने पर ज्यादा पता चलता है । यहाँ रहते हुए तो जैसे प्रदूषित हवा की आदत पड़ गई है।
बाकी छुट्टियाँ भी ऐसे ही कई कहानियाँ और कविताएँ सुनाने में बीतीं। कई नए बच्चों से दोस्ती हुई । उनकी चर्चा फिर कभी।
इतना अवश्य कहना चाहूँगी कि जीवन का हर पल हमें कुछ सिखा जाता है। आवश्यकता है बच्चों की तरह जिज्ञासु बनने की, सिर्फ अपनी इंद्रियों को सचेत रखने की, कुछ भी सीखने के लिए हर समय तत्पर रहने की ।
उषा छाबड़ा
26.6.16
Comments
— बहुत प्रेरक है, आपका यह संस्मरण!
अच्छा संस्मरण
अापका हार्दिक धन्यवाद, रावेंद्रकुमार रवि जी एवं पवित्रा जी।